दुखद है कि हिन्दी अंतरिक्ष में पहुंच गई, विश्व भाषा बन गई, संयुक्त राष्ट्र में बोली गई लेकिन अपने यहां उसे शिक्षा के माध्यम का दरजा
नहीं मिला। वह संसद और संविधान में प्रामाणिक दस्तावेज की भाषा नहीं बनी, सरकारी और निजी या भारतीय मूल के बहुराष्ट्रीय संस्थानों में उच्च पदों के
रोजगार की भाषा नहीं हुई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है-जनता या शासक और प्रशासक?
इस प्रश्न के उत्तर में ही हिन्दी के विकास और पिछड़ेपन का समाधान
छिपा है
हिन्दी की दुर्दशा के लिए अक्सर हिन्दी भाषी जनता को दोषी ठहराया जाता है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में व्यापक अशिक्षा है; हिन्दी में प्रकृति-विज्ञान तो दूर, समाज विज्ञान के लिए भी अच्छी पुस्तकें नहीं हैं; रूढ़िवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा गढ़ हिन्दी-प्रदेश है; हिन्दी-दंभ के कारण दूसरे भाषायी क्षेत्र डरते हैं कि उनका विकास रु क जाएगा, आदि-आदि। इस तरह की बातें अक्सर सुनी जाती हैं। जरा रु ककर विचार कीजिए, इन बातों की जिम्मेदारी किसी समुदाय की होती है, या उसका नेतृत्व करने वाली और उस पर शासन करने वाली (राजनीतिक और आर्थिक) शक्तियों की? नीतियां कौन बनाता है, साधन कौन मुहैया करता है?बेशक, हिन्दी का बाजार इतना बड़ा है कि उसकी उपेक्षा का साहस बड़े उद्योगपति भी नहीं कर सकते। जिन संस्थाओं ने सबसे लोकप्रिय पत्रिकाएं एक समय बंद कर दी थीं, उन्होंने दो दशक बीतते-बीतते ‘‘हम बाजार को सरल करके बताते हैं, हम हिन्दी हैं’ का नारा लगाते हुए वित्त और व्यापार के पत्र हिन्दी में निकाले। हिन्दी भाषी मध्य वर्ग को बाजार से जोड़ना था तो संचार-माध्यमों में हिन्दी की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। 1970 के बाद प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर निजी स्कूलों का विस्तार हुआ, 1980 के बाद उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में निजी संस्थाओं का विस्तार हुआ; उसी के साथ शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी अधिकाधिक अपदस्थ हुई। जिस मध्य वर्ग को हिन्दी के जरिए सट्टा-बाजार में लाने का उपाय किया जा रहा है, वह अपने बच्चों को अपनी तरह हिन्दी वाला नहीं बनाए रखना चाहता। कारण साफ हैं। प्रेमचंद ने ‘‘रंगभूमि’ में लिखा था कि अंग्रेजी पढ़कर अफसर बनेगा, उर्दू पढ़कर चपरासी। आज उर्दू वाली स्थिति हिन्दी की है। योग्यता के बाजार में अंग्रेजी की कीमत ज्यादा है। हिन्दी, उर्दू, संस्कृत के लोगों को गिनी-चुनी नौकरियां मिलती हैं। अधिकतर निचले स्तर की। बेहतर भविष्य की आशा हिन्दी से नहीं, अंग्रेजी से जुड़ती है। मध्य वर्ग को भली-भांति अनुभव है कि स्कूलों में हिन्दी बोलने पर ‘‘पनिशमेंट’ मिलती है। इस ‘‘पनिशमेंट’ से बचाने के लिए वह घर पर टय़ूशन का बंदोबस्त भी करता है। मुश्किल यह है कि सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी खस्ता है कि विद्यार्थी वहां शिक्षा कम पाते हैं, कुसंस्कार ज्यादा। मध्य वर्ग ही नहीं, उसके नीचे किसान, मजदूर, चपरासी, घरों में काम करने वाली बाइयां भी अपने बच्चों को भरसक अंग्रेजी-माध्यम स्कूलों में पढ़ाने का प्रयत्न करती हैं। नौकरियों में निजी शिक्षा-संस्थाओं के अलावा इन विद्यालयों से पढ़कर निकले विद्यार्थियों को बेहतर अवसर मिलते हैं। इनके मुकाबले सर्वोदय विद्यालय, नगर पालिका विद्यालय, राज्यों के नियंतण्रमें चलने वाले विद्यालयों से पढ़कर निकले विद्यार्थी किस स्थिति में रहते हैं? इसका कोई सर्वेक्षण नहीं होता वरना तस्वीर साफ हो जाए। यही स्थिति हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की है। अखिल भारतीय सेवाओं के लिए तमिल, पंजाबी, उड़िया के बजाय अंग्रेजी की वरीयता स्पष्ट है। संक्षेप में, शिक्षा के माध्यम और रोजगार के साधन के बीच सीधा रिश्ता होता है। यह बात माता-पिता भी समझने लगे हैं, लेकिन बाजार इसे बहुत अच्छी तरह समझता है। नगरों में नौकरीपेशा परिवारों की कमाई का मोटा हिस्सा मकान के किराये और बच्चों की फीस में निकलता है। फिर, छोटे बच्चों की टय़ूशन और बड़े बच्चों की कोचिंग में मां-बाप कंगाल होते जाते हैं, और बाजार मालामाल। स्थिति दिनोंदिन भयावह होती जा रही है। सबसे बड़ा कारण है अवसरों का घटते जाना, प्रतियोगिता का बढ़ते जाना और मातृ भाषा का शिक्षा के माध्यम से अपदस्थ होते जाना। शिक्षा-सुधार के नाम पर ‘‘नई’ शिक्षा नीति आती है, और विद्यार्थियों को पहले से अधिक परजीवी बना देती है। गांधी जी समझते थे कि आजाद भारत में अक्षर-ज्ञान और व्यावहारिक-हुनर का संतुलन शिक्षा नीति का आधार होगा। यह परिप्रेक्ष्य आज तक किसी भी शासन का नहीं बन सका। बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट को आधार बनाकर पिछले शासन ने जो नीति-परिवर्तन किया था, उसने हुनर के नाम पर उद्योगों के लिए ‘‘मानव-संसाधन’ जुटाने की शुरु आत की है। नये शासक पिछली सत्ता के प्रत्येक कार्य में दोष देखते हैं, लेकिन इस रिपोर्ट के आधार पर चालू पण्राली को हटाने की जगह उसे मजबूत कर रहे हैं। इतिहास में कुछ शासकों का महत्त्व घटाकर और दूसरे शासकों का महत्त्व बढ़ाकर राजनीतिक लक्ष्य साधे जा सकते हैं, मौलिक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता।‘‘मानव-संसाधन’ उत्पन्न करने वाली शिक्षा पण्राली ने सबसे नुकसानदायक कार्य यह किया है कि उसने शिक्षा से ज्ञान को बहिष्कृत करके सूचना को प्रतिष्ठित किया है। विश्व की प्रभुत्वशाली सत्ताएं आज के युग को ‘‘सूचना का युग’ कहती हैं। सूचना असम्बद्ध तयों का संकलन है, ज्ञान संबद्ध तयों का विवेक। ज्ञान के लिए भाषा का उतना ही महत्त्व है, जितना तय का। सूचना के लिए भाषा गौण स्थान रखती है। इस नजरिए का परिणाम भाषा-शिक्षण पर भी पड़ा है। सूचना-केंद्रित अध्ययन कक्षाओं से अधिक कोचिंग-सेंटर के अनुकूल है। यह धंधा जितना फूला-फला है, उससे स्कूलों की शिक्षण-विधि पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। दूसरी तरफ, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं अनुसंधान परिषद ने हिन्दी-पाठय़क्रम से व्याकरण और इतिहास को बाहर कर दिया है। ऐसे में विद्यार्थी जो ’भाषा’ सीखेगा, वह कैसी होगी? कहने की जरूरत नहीं है।यही विद्यार्थी उच्च शिक्षा में पहुंच कर ‘‘मानव-संसाधन’ के रूप में विकास करेगा। भाषा और तर्क संगत ज्ञान का आपस में संबंध है। इन दोनों से यथाशक्ति दूर किया हुआ विद्यार्थी अपनी जानकारियों के अंबार से दबा और संतुष्ट, तकनीकी हुनर से धनार्जन में संलग्न, भाषा और सामाजिक चिंता के सवालों से उदासीन, प्रतिरोध और विद्रोह की चेतना से बेगाना, हर स्थिति के अनुसार ढल जाने के योग्य, आज उत्तर-आधुनिक या भूमंडलीय समय के लिए उपयुक्त प्राणी है। भाषा का सवाल एक व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ा हुआ है। मातृ भाषाओं के विकास का सवाल सामाजिक संवेदनशीलता और परिवर्तन का मुख्य साधन हैं। निजी शिक्षा का फैलता बाजार इस लक्ष्य को इतने सधे तरीके से पूरा करता है कि लोगों को लगता है, हिन्दी के पिछड़ेपन का कारण हिन्दीभाषी लोग ही हैं। दुखद यह भी है कि हिन्दी अंतरिक्ष में पहुंच गई, विश्व भाषा बन गई, संयुक्त राष्ट्र में बोली गई लेकिन अपने यहां उसे शिक्षा के माध्यम का दरजा नहीं मिला। वह संसद और संविधान में प्रामाणिक दस्तावेज की भाषा नहीं बनी, सरकारी और निजी या भारतीय मूल के बहुराष्ट्रीय संस्थानों में उच्च पदों के रोजगार की भाषा नहीं हुई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है-जनता या शासक और प्रशासक? इस प्रश्न के उत्तर में ही हिन्दी के विकास और पिछड़ेपन का समाधान छिपा है।
हिन्दी की दुर्दशा के लिए अक्सर हिन्दी भाषी जनता को दोषी ठहराया जाता है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में व्यापक अशिक्षा है; हिन्दी में प्रकृति-विज्ञान तो दूर, समाज विज्ञान के लिए भी अच्छी पुस्तकें नहीं हैं; रूढ़िवाद, जातिवाद और सांप्रदायिकता का सबसे बड़ा गढ़ हिन्दी-प्रदेश है; हिन्दी-दंभ के कारण दूसरे भाषायी क्षेत्र डरते हैं कि उनका विकास रु क जाएगा, आदि-आदि। इस तरह की बातें अक्सर सुनी जाती हैं। जरा रु ककर विचार कीजिए, इन बातों की जिम्मेदारी किसी समुदाय की होती है, या उसका नेतृत्व करने वाली और उस पर शासन करने वाली (राजनीतिक और आर्थिक) शक्तियों की? नीतियां कौन बनाता है, साधन कौन मुहैया करता है?बेशक, हिन्दी का बाजार इतना बड़ा है कि उसकी उपेक्षा का साहस बड़े उद्योगपति भी नहीं कर सकते। जिन संस्थाओं ने सबसे लोकप्रिय पत्रिकाएं एक समय बंद कर दी थीं, उन्होंने दो दशक बीतते-बीतते ‘‘हम बाजार को सरल करके बताते हैं, हम हिन्दी हैं’ का नारा लगाते हुए वित्त और व्यापार के पत्र हिन्दी में निकाले। हिन्दी भाषी मध्य वर्ग को बाजार से जोड़ना था तो संचार-माध्यमों में हिन्दी की उपेक्षा नहीं की जा सकती थी। 1970 के बाद प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर निजी स्कूलों का विस्तार हुआ, 1980 के बाद उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में निजी संस्थाओं का विस्तार हुआ; उसी के साथ शिक्षा के माध्यम के रूप में हिन्दी अधिकाधिक अपदस्थ हुई। जिस मध्य वर्ग को हिन्दी के जरिए सट्टा-बाजार में लाने का उपाय किया जा रहा है, वह अपने बच्चों को अपनी तरह हिन्दी वाला नहीं बनाए रखना चाहता। कारण साफ हैं। प्रेमचंद ने ‘‘रंगभूमि’ में लिखा था कि अंग्रेजी पढ़कर अफसर बनेगा, उर्दू पढ़कर चपरासी। आज उर्दू वाली स्थिति हिन्दी की है। योग्यता के बाजार में अंग्रेजी की कीमत ज्यादा है। हिन्दी, उर्दू, संस्कृत के लोगों को गिनी-चुनी नौकरियां मिलती हैं। अधिकतर निचले स्तर की। बेहतर भविष्य की आशा हिन्दी से नहीं, अंग्रेजी से जुड़ती है। मध्य वर्ग को भली-भांति अनुभव है कि स्कूलों में हिन्दी बोलने पर ‘‘पनिशमेंट’ मिलती है। इस ‘‘पनिशमेंट’ से बचाने के लिए वह घर पर टय़ूशन का बंदोबस्त भी करता है। मुश्किल यह है कि सरकारी विद्यालयों की स्थिति इतनी खस्ता है कि विद्यार्थी वहां शिक्षा कम पाते हैं, कुसंस्कार ज्यादा। मध्य वर्ग ही नहीं, उसके नीचे किसान, मजदूर, चपरासी, घरों में काम करने वाली बाइयां भी अपने बच्चों को भरसक अंग्रेजी-माध्यम स्कूलों में पढ़ाने का प्रयत्न करती हैं। नौकरियों में निजी शिक्षा-संस्थाओं के अलावा इन विद्यालयों से पढ़कर निकले विद्यार्थियों को बेहतर अवसर मिलते हैं। इनके मुकाबले सर्वोदय विद्यालय, नगर पालिका विद्यालय, राज्यों के नियंतण्रमें चलने वाले विद्यालयों से पढ़कर निकले विद्यार्थी किस स्थिति में रहते हैं? इसका कोई सर्वेक्षण नहीं होता वरना तस्वीर साफ हो जाए। यही स्थिति हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं की है। अखिल भारतीय सेवाओं के लिए तमिल, पंजाबी, उड़िया के बजाय अंग्रेजी की वरीयता स्पष्ट है। संक्षेप में, शिक्षा के माध्यम और रोजगार के साधन के बीच सीधा रिश्ता होता है। यह बात माता-पिता भी समझने लगे हैं, लेकिन बाजार इसे बहुत अच्छी तरह समझता है। नगरों में नौकरीपेशा परिवारों की कमाई का मोटा हिस्सा मकान के किराये और बच्चों की फीस में निकलता है। फिर, छोटे बच्चों की टय़ूशन और बड़े बच्चों की कोचिंग में मां-बाप कंगाल होते जाते हैं, और बाजार मालामाल। स्थिति दिनोंदिन भयावह होती जा रही है। सबसे बड़ा कारण है अवसरों का घटते जाना, प्रतियोगिता का बढ़ते जाना और मातृ भाषा का शिक्षा के माध्यम से अपदस्थ होते जाना। शिक्षा-सुधार के नाम पर ‘‘नई’ शिक्षा नीति आती है, और विद्यार्थियों को पहले से अधिक परजीवी बना देती है। गांधी जी समझते थे कि आजाद भारत में अक्षर-ज्ञान और व्यावहारिक-हुनर का संतुलन शिक्षा नीति का आधार होगा। यह परिप्रेक्ष्य आज तक किसी भी शासन का नहीं बन सका। बिड़ला-अंबानी रिपोर्ट को आधार बनाकर पिछले शासन ने जो नीति-परिवर्तन किया था, उसने हुनर के नाम पर उद्योगों के लिए ‘‘मानव-संसाधन’ जुटाने की शुरु आत की है। नये शासक पिछली सत्ता के प्रत्येक कार्य में दोष देखते हैं, लेकिन इस रिपोर्ट के आधार पर चालू पण्राली को हटाने की जगह उसे मजबूत कर रहे हैं। इतिहास में कुछ शासकों का महत्त्व घटाकर और दूसरे शासकों का महत्त्व बढ़ाकर राजनीतिक लक्ष्य साधे जा सकते हैं, मौलिक परिवर्तन नहीं लाया जा सकता।‘‘मानव-संसाधन’ उत्पन्न करने वाली शिक्षा पण्राली ने सबसे नुकसानदायक कार्य यह किया है कि उसने शिक्षा से ज्ञान को बहिष्कृत करके सूचना को प्रतिष्ठित किया है। विश्व की प्रभुत्वशाली सत्ताएं आज के युग को ‘‘सूचना का युग’ कहती हैं। सूचना असम्बद्ध तयों का संकलन है, ज्ञान संबद्ध तयों का विवेक। ज्ञान के लिए भाषा का उतना ही महत्त्व है, जितना तय का। सूचना के लिए भाषा गौण स्थान रखती है। इस नजरिए का परिणाम भाषा-शिक्षण पर भी पड़ा है। सूचना-केंद्रित अध्ययन कक्षाओं से अधिक कोचिंग-सेंटर के अनुकूल है। यह धंधा जितना फूला-फला है, उससे स्कूलों की शिक्षण-विधि पर प्रश्न चिह्न लग जाता है। दूसरी तरफ, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं अनुसंधान परिषद ने हिन्दी-पाठय़क्रम से व्याकरण और इतिहास को बाहर कर दिया है। ऐसे में विद्यार्थी जो ’भाषा’ सीखेगा, वह कैसी होगी? कहने की जरूरत नहीं है।यही विद्यार्थी उच्च शिक्षा में पहुंच कर ‘‘मानव-संसाधन’ के रूप में विकास करेगा। भाषा और तर्क संगत ज्ञान का आपस में संबंध है। इन दोनों से यथाशक्ति दूर किया हुआ विद्यार्थी अपनी जानकारियों के अंबार से दबा और संतुष्ट, तकनीकी हुनर से धनार्जन में संलग्न, भाषा और सामाजिक चिंता के सवालों से उदासीन, प्रतिरोध और विद्रोह की चेतना से बेगाना, हर स्थिति के अनुसार ढल जाने के योग्य, आज उत्तर-आधुनिक या भूमंडलीय समय के लिए उपयुक्त प्राणी है। भाषा का सवाल एक व्यापक सामाजिक-ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य से जुड़ा हुआ है। मातृ भाषाओं के विकास का सवाल सामाजिक संवेदनशीलता और परिवर्तन का मुख्य साधन हैं। निजी शिक्षा का फैलता बाजार इस लक्ष्य को इतने सधे तरीके से पूरा करता है कि लोगों को लगता है, हिन्दी के पिछड़ेपन का कारण हिन्दीभाषी लोग ही हैं। दुखद यह भी है कि हिन्दी अंतरिक्ष में पहुंच गई, विश्व भाषा बन गई, संयुक्त राष्ट्र में बोली गई लेकिन अपने यहां उसे शिक्षा के माध्यम का दरजा नहीं मिला। वह संसद और संविधान में प्रामाणिक दस्तावेज की भाषा नहीं बनी, सरकारी और निजी या भारतीय मूल के बहुराष्ट्रीय संस्थानों में उच्च पदों के रोजगार की भाषा नहीं हुई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है-जनता या शासक और प्रशासक? इस प्रश्न के उत्तर में ही हिन्दी के विकास और पिछड़ेपन का समाधान छिपा है।