Sunday, July 1, 2018

स्कूली किताबें तक नहीं बिहार में


संचार और तकनीकी के इस युग में भी बिहार सरकार विद्यालयों तक पाठय़पुस्तकों को पहुंचाने के लिए संघर्ष कर रही है। पहली व्यवस्था के अनुसार बच्चों को किताबें दी जाती थीं। लेकिन पिछली बार किताबें उन्हें तब नसीब हुई जब साल लगभग बीत गया। उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार इस वर्ष किताबें समय पर दी जानी थीं। अब फैसला यह लिया गया कि बच्चों के खातों में सीधे पैसे भेज दिए जाएं और बाजार में पुस्तकें उपलब्ध करा दी जाएं। यह प्रक्रिया इतना जटिल है कि समय पर पुस्तकों का उपलब्ध होना और भी मुश्किल सा लगता है। अगले तीन-चार महीने में भी इसके सही होने की उम्मीद कम ही है। आश्र्चय की बात यह है कि बाकी कई राज्यों में पुस्तकों को छात्रों तक पहुंचने की वही पुरानी प्रक्रिया है, और सफल भी है। फिर बिहार में ही ऐसी अव्यवस्था क्यों हो जाती है? बिहार सरकार पर आप कितना भी आरोप लगा लें यह तो नहीं ही कहा जा सकता है कि शिक्षा विस्तार में उसकी रु चि नहीं है। पिछले कुछ सालों में जिस तरह से साइकिल और ड्रेस आदि बांट कर सरकार ने छात्रों और अभिवावकों में शिक्षा के प्रति उत्साह पैदा किया है, काफी सराहनीय है। लेकिन इस प्रक्रिया को चलाते रहने के लिए सरकार में एक तरह की रचनात्मक ऊर्जा भी चाहिए। शायद अब इसकी कमी हो रही है। ऐसा लगता है कि सरकार की नौकरशाही में कल्पना शक्ति क्षीण हो गई है। प्रशासनिक नेतृत्व में प्रयोग से वे कतराते हैं। पुस्तक और कपड़ों के लिये पैसे खाते में भेजने का निर्णय इसी स्वभाव को दर्शाता है। छापने के लिए कागज मुहैया कराने से लेकर पुस्तकों के वितरण तक में अफसरशाही के अलग-अलग सौपान की सहभागिता के ज़रूरत है, जिसका बिहार में अभाव है। पैसे के रहते यदि प्रक्रिया में विलंब हो तो इसका ज़िम्मेदार कौन होगा? लगता है कि उच्च न्यायालय को ही यह भी आदेश करना होगा कि मुदण्रऔर वितरण का काम स्वयं सरकार करे क्योंकि नई व्यवस्था से तो पुस्तकों के पहुंचने की संभावना और भी कम हो जाएगी। एक अनुमान के अनुसार केवल तीस प्रतिशत ग्रामीण जनसंख्या के पास कोई बैंक खाता है। बच्चों का बैंक खाता केवल अपने अभिभावक के साथ ही खुल सकता है। बैंकों में ऐसे ही कम भीड़ नहीं होती है। और खाते में यदि यथेष्ट पैसे नहीं हो तो फिर जितना पैसा उन्हें मिलेगा उससे ज्यादा फाइन देना पड़ेगा। ज्ञातव्य है कि उन्हीं पैसों से भारतीय स्टेट बैंक ने तीन सौ करोड़ रु पये कमा लिए। इस संदर्भ में मैंने लोगों से बात की तो पता चला कि कपड़ों के लिए जो पैसे खाते में दिए जाते हैं, उसका भी यही हश्र होता है। इसका प्रमाण यह है कि आप बहुत काम बच्चों को स्कूल ड्रेस में देखेंगे। पहले तो बैन में पैसे का जाना, फिर उसे निकाल कर पुस्तक खरीदने जाना कठिन है। इसलिए शिक्षा का विस्तार करना है, तो सरकार को अपने अफसरशाही को जड़ता से निकाल कर उत्तरदायी बनाना पड़ेगा। संभावना यह भी है कि इस नई ठेकेदारी व्यवस्था में कुछ ऊपरी आमदनी की व्यवस्था हो, इसलिए इसमें उनकी रु चि ज्यादा है, ऐसा कहना है बहुत से लोगों का। मुझे इसमें तय नहीं लगता है, लेकिन यह तो ज़रूर है कि एक जिम्मेदार नौकरशाही के भरोसे ही शिक्षा में सुधार की उम्मीद की जा सकती है। शरिसबपाही में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान मंच पर मुख्यमंत्री को उपस्थित पाकर मैं अपने आपको यह कहने से रोक नहीं पाया था कि बिहार की जनता के विकास का रास्ता शिक्षा से होकर ही है। यही उनकी उम्मीद है। आर्थिक विकास का कोई और मॉडल तो हमें सफल होता दिखता नहीं है। लेकिन बिहार जिस ज्ञान परंपरा का उद्गम स्थल रहा है उसे स्थापित करने से शायद हम आर्थिक विकास भी कर पाएं। हमें सोचना होगा कि आखिर, दिल्ली और कोटा जैसी जगहों पर यादातर शिक्षक भी बिहारी हैं और छात्र भी बिहारी हैं, फिर उन्हें बिहार से बाहर क्यों जाना पड़ता है। बिहार के महुआल में ऐसा क्या है कि हमारी सारी शिक्षा संस्थाएं एक-एक कर ध्वस्त हो रही हैं। यहां तक कि आइआइटी और केंद्रीय विविद्यालय भी आख़्िारी सोपान पर खड़े हैं। मुख्यमंत्री महोदय ने अपने भाषण में मेरा जबाब देने के तर्ज पर प्राथमिक शिक्षा में किय गए अपने कामों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया। लेकिन यदि आप उनके उपलब्धियों की समीक्षा करें तो सापेक्ष तौर पर भले ही बड़ी सफलताएं हो सकती हैं अपने आप में उसका कोई ख़्ास मतलब नहीं हो सकता है। पहले की तुलना में छात्रों की संख्या बहुत बढ़ गई है, और राज्य के लिए उसे संभालना आसान नहीं है। लेकिन यह भी सच है कि इस पूरी व्यवस्था को केवल शिक्षा मित्रों के भरोसे संभालना भी संभव नहीं है। यह देख कर दु:ख और आश्र्चय होता है कि जिन विद्यालयों के सहारे बिहार ने एक बड़ा शिक्षित वर्ग तैयार किया था, अब सब बदहाली में फंसे हुए हैं। इस विद्यालयों को पुन: प्रतिष्ठित करने के बदले यदि बिहार सरकार शिक्षा मित्रों के सहारे राज्य के बच्चों का भविष्य संवारने का सपना देखती है, तो उनका भगवान ही मालिक है। जो सरकार सही समय पर किताब मुहैया करने में ही सक्षम नहीं है, उससे आगे क्या उम्मीद की जा सकती है?


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