हाल ही में
यूजीसी (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग) ने फैकल्टी, रिसर्चरों,
ऐकडेमिक जगत के अन्य सदस्यों, समाचारपत्रों और
मीडिया जगत की शिकायतों के आधार पर 4305 जर्नल को उनके ‘निम्न स्तर, अपर्याप्त जानकारी और गलत दावों’
के कारण अप्रूव्ड जर्नल सूची से बाहर निकाल दिया। दिलचस्प बात है कि
इस फैसले से पहले इन जर्नलों के पब्लिशर या मैनेजमेंट को सूचना भी नहीं दी गई।
उनसे उनका पक्ष जानने तक की कोशिश नहीं की गई।
चूंकि इन जर्नलों को सूची से निकालने का कोई स्पष्ट कारण यूजीसी ने
नहीं बताया है इसलिए इसे लेकर अनिश्चितता और असमंजस की स्थिति बन गई है। अगर यह
माना जाए कि फैसले के मानक वेबसाइट पर संपादक और संपादक मंडल के सदस्यों का मेल और
पता,
लेखकों के लिए निर्देश, पीयर रिव्यू, प्रकाशन नीति, आचार संहिता, प्रकाशन
का समय और निरंतरता, प्रकाशन के लिए ली जाने वाली राशि आदि
थे, तो छांटे गए अनेक जर्नल इन आधारों पर खरे उतरते हैं। ऐसे
में उनका सूची से बाहर निकलना अनेक प्रश्नों को जन्म देता है।
एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि जिन्होंने इस महान काम को अंजाम
दिया है उनके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं है। इस फैसले का पूरा श्रेय यूजीसी
जर्नल टीम को दिया जा रहा है। इस टीम के सदस्यों के बारे में कोई जानकारी नहीं दी
गई है। यूजीसी को अपनी वेबसाइट पर इन सभी एक्सपर्ट्स के नाम जाहिर करने चाहिए।
यूजीसी को अपनी वेबसाइट पर शिकायतकर्ताओं के नाम भी प्रदर्शित करने चाहिए। पता तो
चले कि किन लोगों ने शिकायत की और उन पर किन लोगों ने फैसला किया।
गौरतलब है कि
शोधपत्रों के प्रकाशन और पीएचडी के मामले में चीन बहुत आगे है। वजह यह है कि वहां
की शिक्षा नीति में निरंतरता बनाए रखी गई है। इसके अलावा वहां शिक्षा के क्षेत्र
में पैसे की भी कमी नहीं होने दी गई है। 2018 में चीन ने विज्ञान के क्षेत्र में सबसे अधिक
शोधपत्र प्रकाशित किए हैं। उसके बाद ही स्वीडन, स्विट्जरलैंड,
यूरोपियन यूनियन और अमेरिका का स्थान आता है। भारतीय उच्च शिक्षा
अभी संकट से गुजर रही है क्योंकि विश्व के अन्य विश्वविद्यालयों से प्रतिस्पर्धा
करने के चक्कर में हम प्रयोग पर प्रयोग किए जा रहे हैं। फंड की कमी तो एक शाश्वत
समस्या का रूप लेती जा रही है। यूजीसी ने कॉलेजों को फंड के लिए 30:70 का फॉर्म्युला सुझाया जो कि उच्च शिक्षा के विस्तार के लिए तर्कसंगत नहीं
है। इसके मुताबिक, 30 फीसदी राशि की उगाही कॉलेज
विद्यार्थियों से अधिक फीस लेकर करने को मजबूर होंगे। स्वाभाविक है कि शिक्षा
महंगी होगी जिसका खामियाजा आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के स्टूडेंट्स को भुगतना
होगा।
ध्यान रहे, पहले यूजीसी ने उच्च शिक्षा में शिक्षकों की
नियुक्ति और प्रोन्नति में एपीआई (ऐकडेमिक पॉइंट इंडिकेटर) को कम्पल्सरी कर दिया।
फिर उसने अप्रूव्ड जर्नल की सूची निकाली और घोषणा की कि इन अप्रूव्ड जर्नल में
प्रकाशित शोधपत्रों को ही पॉइंट मिलेगा। यह भी कहा गया कि डिग्री प्राप्त करने के
लिए पीएचडी स्कॉलर को अप्रूव्ड जर्नल में शोधपत्र प्रकाशित करना होगा।
स्वाभाविक था कि इसके बाद नियुक्ति-प्रोन्नति और डिग्री प्राप्त
करने के लिए यूजीसी अप्रूव्ड जर्नल में शोधपत्र प्रकाशित करवाने की होड़ लग गई।
छात्रों-रिसर्चरों ने मेहनत की, शोधपत्र लिखा, प्रकाशित
करवाया और नियुक्ति-प्रोन्नति और डिग्री के लिए अहर्ता पूरी कर प्रतीक्षारत हो गए।
तभी उनकी उम्मीदों पर कुठाराघात हुआ। यूजीसी ने एक ही वार में 4300 से ज्यादा जर्नल को बाहर का रास्ता दिखा दिया। अब नियुक्ति-प्रोन्नति और
पीएचडी डिग्री के लिए प्रतीक्षा कर रहे अभ्यर्थियों को पता ही नहीं है कि इन 4305
बाहर किए गए जर्नल में प्रकाशित उनके शोधपत्र का हश्र क्या होगा।
किसी को नहीं पता कि उन प्रकाशित शोधपत्रों के पॉईंट्स मिलेंगे या नहीं। दिलचस्प
बात यह है कि ऐसी अनिश्चितताओं से ग्रस्त नीतियों के आधार पर हम उच्च शिक्षा को
विश्व स्तरीय बनाने का सपना भी पाले हुए हैं।