आज चारों ओर काल का
अकाल या दुíभक्ष पड़ा हुआ है। पैसे दे कर भी उसे खरीदा
नहीं जा सकता। समय अमूल्य है, और सबसे निरपेक्ष। उस पर किसी
का अधिकार नहीं है। काल सबको दौड़ा रहा है। काम और विश्राम, दोनों
के लिए समय कम पड़ता जा रहा है, लगता है एक जिंदगी नाकाफी
है। समय की कैद से राहत कैसे मिले
काल एक बड़ा अनोखा और उपयोगी प्रत्यय है पर उसे अपनाने के साथ ही जवाबदेही भी आती है क्योंकि काल के विस्तृत आयाम में हम करते क्या हैं वही खास होता है। तरतीब से जीवन का अर्थ बैठाने के लिए हम सब अपने अनुभवों को भूत, वर्तमान और भविष्य के खांचों में व्यवस्थित करते रहते हैं। पर स्वयं में हर अनुभव अखंड होता है, और काल से परे भी। इसलिए इन काल खंडों के अंतर्गत शामिल होने वाले अनुभवों के बीच आवाजाही भी बनी रहती है। काल के मूल में हमारे अनुभव में आने वाला परिवर्तन ही मुख्य होता है क्योंकि हमारा अनुभव क्षण-क्षण बदलाव से ही उकेरा जाता है। एक अर्थ में स्मृतियों के सहारे पहले हुए अनुभवों का पुनर्जीवन करते रहते हैं। स्मृति में संचित अनुभवों को अपने ढंग से हम भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग करते हैं। तात्कालिक स्मृति बड़ी सीमित क्षमता की होती है। इसलिए उसका भार कम करने के लिए हम समग्र अनुभव को कुछ खानों में रख देते हैं। अनुभवकर्ता और उसकी स्मृति व्यवस्था को भी कुछ विश्राम दे देते हैं, और जरूरत पड़ने पर संचित स्मृति को बाहर बुला लिया करते हैं। चूंकि काल हमारे अनुभव के उपयोग से जुड़ा होता है, इसलिए उसके साथ अक्सर कोई न कोई विशेषण जुड़ जाता है। हम सभी सुकाल, अकाल, दुष्काल, अतिकाल, महाकाल और आपात काल जैसे प्रयोगों से परिचित हैं। काल स्वयं में खाली है, अवकाश है, और उसे किस अनुभव से भरा जा रहा है, वह महत्वपूर्ण होता है। आजकल तैतालिस वर्ष पहले घटित हुए ‘‘आपातकाल’ को स्मरण में ला कर उसकी अनेक व्याख्याएं अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार प्रस्तुत की जा रही हैं। व्यक्तिगत जीवन में काल आज बड़ा कीमती हो गया है। बाजार की वस्तु का रूप ले रहा है। माननीय लोगों से मिलने के लिए टाइम मिलना सौभाग्य होता है। अभी दिल्ली में अद्भुत नजारा था। राज्यपाल से मिलने के लिए उन्हीं के मुख्यमंत्री को समय लेना पड़ता है, और उसके लिए कई दिनों का आंदोलन होता है। अत्यंत व्यस्तता के चलते मंत्री और अधिकारियों से मिलना भी दूभर है। ऊपर से समय का टोटा पड़ा है। आज चारों ओर काल का अकाल या दुíभक्ष पड़ा हुआ है। पैसे दे कर भी उसे खरीदा नहीं जा सकता। समय अमूल्य है, और सबसे निरपेक्ष। उस पर किसी का अधिकार नहीं है। काल सबको दौड़ा रहा है। काम और विश्राम, दोनों के लिए समय कम पड़ता जा रहा है, लगता है एक जिंदगी नाकाफी है। समय की कैद से राहत कैसे मिले? यह आज यक्ष प्रश्न हो गया है। समय का तनाव पिछले चार-पांच दशकों में खूब बढ़ा है। यह तब है जब विभिन्न तकनीकी उपकरणों के चलते काम के घंटे भी कम हुए हैं पर साथ में सबकी व्यस्तता भी खूब बढ़ी है। यह अलग बात है कि उपलब्ध समय और हमारे द्वारा किए जाने वाले समय का अनुमान इन दोनों में बड़ा अंतर होता है। ज्यादा समय अवकाश का रहता है पर हम उसका अनुमान घटा कर करते हैं। ज्यादा खाली समय होने पर भी अवकाश की संतुष्टि या तृप्ति नहीं होती है। लोग छुट्टी लेने के कोई अवसर नहीं गंवाते हैं। लोकतंत्र में इतने प्रकार की छुट्टियों के प्रावधान हैं कि उनका नियम से पालन करें तो वर्ष छोटा पड़ जाए। अवकाश भी निष्क्रिय और सक्रिय हो सकता है। अवकाश का जो समय बढ़ा वह टेलीविजन के महा देव को समर्पित हो गया। टीवी देखना निष्क्रिय अवकाश होता है। हमारे सामाजिक काम, जिनमें सक्रिय अवकाश का सुख मिलता था, घटता जा रहा है। काल के अश्व पर सवारी कैसे करें यह सीखना जरूरी है।काल की र्चचा काल-चेतना का उल्लेख किए बिना अधूरी ही रहेगी। हम इतिहास प्रिय हैं। उसे संग्रहालयों में संजोते और सजाते हैं। मनुष्य अपने अंत का सत्य जान कर काल से परे जाने का उपाय करता है। हम सिर्फ इतिहास-चालित नहीं हैं। न मौजूदा परिस्थतियों और आंतरिक दशाओं पर ही पूर्णत: निर्भर करते हैं। वे काम करती हैं, और हमारी गति को प्रभावित भी करती हैं पर मनुष्य कल्पनाशील है। नवाचार और आविष्कार पर बल देता है। इतिहास धक्का देने वाला कोई बल या फोर्स नहीं है। ज्यादे से ज्यादे वह एक संसाधन है। उत्तरजीविता और पुनरुत्पादन जैसे जीवन विषयक प्रश्न भविष्योन्मुख हैं। हमारी चेतना भविष्योन्मुख है, और जीवन का सिरा भविष्य की ओर ही खुलता है। अत: अतीत की कथा को बनाने-बिगाड़ने की मुहिम छोड़ भविष्य, जो संभव है इसलिए अवसर है, की नई कथा रचनी चाहिए : बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेहि।
काल एक बड़ा अनोखा और उपयोगी प्रत्यय है पर उसे अपनाने के साथ ही जवाबदेही भी आती है क्योंकि काल के विस्तृत आयाम में हम करते क्या हैं वही खास होता है। तरतीब से जीवन का अर्थ बैठाने के लिए हम सब अपने अनुभवों को भूत, वर्तमान और भविष्य के खांचों में व्यवस्थित करते रहते हैं। पर स्वयं में हर अनुभव अखंड होता है, और काल से परे भी। इसलिए इन काल खंडों के अंतर्गत शामिल होने वाले अनुभवों के बीच आवाजाही भी बनी रहती है। काल के मूल में हमारे अनुभव में आने वाला परिवर्तन ही मुख्य होता है क्योंकि हमारा अनुभव क्षण-क्षण बदलाव से ही उकेरा जाता है। एक अर्थ में स्मृतियों के सहारे पहले हुए अनुभवों का पुनर्जीवन करते रहते हैं। स्मृति में संचित अनुभवों को अपने ढंग से हम भिन्न-भिन्न प्रयोजनों के लिए उपयोग करते हैं। तात्कालिक स्मृति बड़ी सीमित क्षमता की होती है। इसलिए उसका भार कम करने के लिए हम समग्र अनुभव को कुछ खानों में रख देते हैं। अनुभवकर्ता और उसकी स्मृति व्यवस्था को भी कुछ विश्राम दे देते हैं, और जरूरत पड़ने पर संचित स्मृति को बाहर बुला लिया करते हैं। चूंकि काल हमारे अनुभव के उपयोग से जुड़ा होता है, इसलिए उसके साथ अक्सर कोई न कोई विशेषण जुड़ जाता है। हम सभी सुकाल, अकाल, दुष्काल, अतिकाल, महाकाल और आपात काल जैसे प्रयोगों से परिचित हैं। काल स्वयं में खाली है, अवकाश है, और उसे किस अनुभव से भरा जा रहा है, वह महत्वपूर्ण होता है। आजकल तैतालिस वर्ष पहले घटित हुए ‘‘आपातकाल’ को स्मरण में ला कर उसकी अनेक व्याख्याएं अपने-अपने प्रयोजन के अनुसार प्रस्तुत की जा रही हैं। व्यक्तिगत जीवन में काल आज बड़ा कीमती हो गया है। बाजार की वस्तु का रूप ले रहा है। माननीय लोगों से मिलने के लिए टाइम मिलना सौभाग्य होता है। अभी दिल्ली में अद्भुत नजारा था। राज्यपाल से मिलने के लिए उन्हीं के मुख्यमंत्री को समय लेना पड़ता है, और उसके लिए कई दिनों का आंदोलन होता है। अत्यंत व्यस्तता के चलते मंत्री और अधिकारियों से मिलना भी दूभर है। ऊपर से समय का टोटा पड़ा है। आज चारों ओर काल का अकाल या दुíभक्ष पड़ा हुआ है। पैसे दे कर भी उसे खरीदा नहीं जा सकता। समय अमूल्य है, और सबसे निरपेक्ष। उस पर किसी का अधिकार नहीं है। काल सबको दौड़ा रहा है। काम और विश्राम, दोनों के लिए समय कम पड़ता जा रहा है, लगता है एक जिंदगी नाकाफी है। समय की कैद से राहत कैसे मिले? यह आज यक्ष प्रश्न हो गया है। समय का तनाव पिछले चार-पांच दशकों में खूब बढ़ा है। यह तब है जब विभिन्न तकनीकी उपकरणों के चलते काम के घंटे भी कम हुए हैं पर साथ में सबकी व्यस्तता भी खूब बढ़ी है। यह अलग बात है कि उपलब्ध समय और हमारे द्वारा किए जाने वाले समय का अनुमान इन दोनों में बड़ा अंतर होता है। ज्यादा समय अवकाश का रहता है पर हम उसका अनुमान घटा कर करते हैं। ज्यादा खाली समय होने पर भी अवकाश की संतुष्टि या तृप्ति नहीं होती है। लोग छुट्टी लेने के कोई अवसर नहीं गंवाते हैं। लोकतंत्र में इतने प्रकार की छुट्टियों के प्रावधान हैं कि उनका नियम से पालन करें तो वर्ष छोटा पड़ जाए। अवकाश भी निष्क्रिय और सक्रिय हो सकता है। अवकाश का जो समय बढ़ा वह टेलीविजन के महा देव को समर्पित हो गया। टीवी देखना निष्क्रिय अवकाश होता है। हमारे सामाजिक काम, जिनमें सक्रिय अवकाश का सुख मिलता था, घटता जा रहा है। काल के अश्व पर सवारी कैसे करें यह सीखना जरूरी है।काल की र्चचा काल-चेतना का उल्लेख किए बिना अधूरी ही रहेगी। हम इतिहास प्रिय हैं। उसे संग्रहालयों में संजोते और सजाते हैं। मनुष्य अपने अंत का सत्य जान कर काल से परे जाने का उपाय करता है। हम सिर्फ इतिहास-चालित नहीं हैं। न मौजूदा परिस्थतियों और आंतरिक दशाओं पर ही पूर्णत: निर्भर करते हैं। वे काम करती हैं, और हमारी गति को प्रभावित भी करती हैं पर मनुष्य कल्पनाशील है। नवाचार और आविष्कार पर बल देता है। इतिहास धक्का देने वाला कोई बल या फोर्स नहीं है। ज्यादे से ज्यादे वह एक संसाधन है। उत्तरजीविता और पुनरुत्पादन जैसे जीवन विषयक प्रश्न भविष्योन्मुख हैं। हमारी चेतना भविष्योन्मुख है, और जीवन का सिरा भविष्य की ओर ही खुलता है। अत: अतीत की कथा को बनाने-बिगाड़ने की मुहिम छोड़ भविष्य, जो संभव है इसलिए अवसर है, की नई कथा रचनी चाहिए : बीती ताहि बिसारि दे आगे की सुधि लेहि।