क्या कोई भी तार्किक रूप से
सोचने वाला भारतीय इस पर यकीन कर सकता है कि भारत में महिलाएं युद्ध की विभीषिका
झेल रहे सीरिया से भी ज्यादा खतरे में हैं?
थॉमसन रॉयटर्स का एक हालिया सर्वे इसकी उम्दा मिसाल
है कि एक बेतुकी कोशिश कैसे किसी वास्तविक मुद्दे की बलि ले लेता है। महिलाओं की
सुरक्षा एवं उनके अधिकारों पर सामने आए इस सर्वे में यह स्पष्ट नहीं कि यह किन
लोगों के जवाब पर आधारित है? क्या इसमें ग्रामीण या शहरी, आयु
वर्ग, क्षेत्र और धार्मिक समूहों जैसे मानदंडों पर भी गौर
किया गया? सर्वेक्षणकर्ताओं का दावा है कि उन्होंने इसके लिए
‘विशेषज्ञों’ से बात की, लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि आखिर वे किन विषयों के विशेषज्ञ हैं और
वे किस वर्ग की महिला आबादी के साथ जुड़े हैं। जब इस बारे में पूछा गया तब थॉमसन
रॉयटर्स के प्रवक्ता ने कहा कि यह एक ‘धारणागत’ सर्वे था। इससे पहले तक आम लोग इसे तथ्य के तौर पर देख रहे थे। शुरुआत में
तो थॉमसन रॉयटर्स ने ट्वीट के जरिये अपने सर्वे को प्रचारित किया और उसमें कहीं भी
यह उल्लेख नहीं किया कि यह सर्वे लोगों की राय पर आधारित है, जिसमें कोई संख्यात्मक आंकड़े नहीं हैं।
इसके चलते कुछ लोगों ने इसे फर्जी सर्वे करार दिया। इसने उन लोगों को भी
कुपित किया जिनकी नजर में यह भारत और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली मौजूदा सरकार
की छवि खराब करने के अभियान से जुड़ी कवायद था। अपने आक्रोश को व्यक्त करने के लिए
इन लोगों ने अतीत के तार छेड़ते हुए उन मिसालों के साथ पलटवार किया जिसमें
अंतरराष्ट्रीय लेफ्ट-लिबरल मीडिया ने भारत के खिलाफ अपने पक्षपातपूर्ण रवैये का
परिचय देते हुए वैसी सामग्री पेश की जो उसके वैचारिक आग्रहों से मेल खाती थी।
इस सर्वे में
जहां भारत को महिला सुरक्षा के लिहाज से सबसे खतरनाक देश कहा गया और इस तरह पहले
स्थान पर रखा गया वहीं अमेरिका को दसवें स्थान पर रखा गया। भारत के बाद
अफगानिस्तान को दूसरे और सीरिया को तीसरे स्थान पर रखा गया। हालांकि अमेरिका के
मामले में सवालों और टिप्पणियों का रुख तुरंत एक मीडिया रिपोर्ट की ओर मुड़ गया
जिसमें एक विशेषज्ञ ने ‘मी-टू’ जैसे मुखर अभियान को
इसकी वजह बताया जिसमें तमाम महिलाओं ने अपने यौन उत्पीड़न की पीड़ा साझा की थी और
जिसका व्यापक असर भी देखा गया। सर्वे में शामिल रहे भारतीय ‘विशेषज्ञों’
की ओर से ऐसी कोई स्पष्टता नहीं व्यक्त की गई। ऐसे में यह हम पर ही
है कि हम इससे सही या गलत निष्कर्ष निकालें। नेता इसमें तुरंत कूद पड़े।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इसकी आड़ में प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी के फिटनेस वीडियो पर निशाना साधते हुए बहुत हल्की टिप्पणी की।
उन्होंने इसका जिक्र करना मुनासिब नहीं समझा कि सात साल पहले भी उनकी पार्टी के
शासनकाल में भारत इस सर्वे में चौथे पायदान पर था। तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहे
मोदी ने उस सर्वे का संज्ञान लिया था। हालांकि उनके ट्वीट की भाषा संयमित थी।
उसमें यह
इंगित किया गया था कि सर्वे तथ्यों के बजाय धारणा पर आधारित था। तब मोदी ने राहुल
और उनकी पार्टी पर निशाना साधने के लिए इस सर्वे का इस्तेमाल नहीं किया। इस बार
खुद को दमदार नेता साबित करने की जुगत में जुटे राहुल ने राजनीतिक बढ़त बनाने के
लिए सर्वे से जुड़े तथ्यों की अनदेखी की। उन्होंने एक तरह से महिलाओं को खौफजदा
करने वाले अभियान की अगुआई की। महिला हितों के लिए काम करने वाली तमाम कार्यकर्ता
इससे इत्तफाक नहीं रखतीं, क्योंकि महिलाओं में बेवजह का डर पैदा करना उन्हें
सीमाओं में ही बांधता है।
इस फर्जी सर्वे के कुछ पहलुओं पर ध्यान देने की दरकार है। क्या कोई
भी तार्किक रूप से सोचने वाला भारतीय यह विश्वास कर सकता है कि भारत में महिलाएं
युद्ध की विभीषिका झेल रहे सीरिया से भी ज्यादा खतरे में हैं, जहां आइएस के आतंकी महिलाओं के साथ दुष्कर्म और उनकी हत्या के साथ ही
उन्हें गुलाम बनाकर दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं?
मैं इसी बात
पर जोर दूंगी कि सस्ती राजनीति को किनारे रखकर हम महिलाओं के नजरिये से इस सर्वे
पर विचार करें। सर्वे में शामिल जिन 548 विशेषज्ञों को भारत महिलाओं के लिए सबसे
असुरक्षित लगा उनके बारे में हमें यह तक नहीं मालूम कि वे महिला हैं भी या नहीं?
इस सर्वे को लेकर थॉमसन रॉयटर्स का रुख बेहद गैरजिम्मेदाराना और
मनमाना रहा कुछ लोग उसके गैर-पेशेवर रुख और एजेंडे को देखते हुए इसे शरारतपूर्ण ही
कहेंगे। चूंकि हमें कोई जानकारी नहीं कि सर्वे के लिए क्या पद्धति अपनाई गई और
कैसे नमूने लिए गए इसलिए हम उसी मी-टू अभियान की मिसाल लेते हैं जो अमेरिका के
दसवें स्थान पर आने की वजह बना। कहा जा रहा है कि मी-टू अभियान के अंतरराष्ट्रीय
असर से इस धारणा को बल मिला कि अमेरिका में महिलाएं असुरक्षित हैं। अगर यही दलील
है तो हम भारत की स्थिति में आई उछाल को भी अतीत से जोड़कर देखें जब पिछली बार 2011
में यह सर्वे किया गया था।
दिसंबर 2012 में जब निर्भया कांड सामने आया था तो उसने
समूचे राष्ट्र की चेतना को झकझोर कर रख दिया था। उस अपराध की बर्बरता, जिंदगी के लिए निर्भया का साहसपूर्ण संघर्ष और तत्कालीन संप्रग सरकार की
संवेदनहीनता के चलते नारी समाज का आक्रोश सड़कों पर उतर आया था। लगा कि पानी सिर
से ऊपर आ गया है। मीडिया ने भी सुनिश्चित किया कि निर्भया महज यादों में न रह जाए।
महिलाओं के खिलाफ अपराधों से निपटने की राह में सिफारिशें देने के लिए जैन आयोग का
गठन करने के साथ ही एक कोष भी बनाया गया। उस वीभत्स कांड के बाद मीडिया ने कश्मीर
से लेकर केरल तक के ऐसे तमाम मामलों को उजागर किया। सोशल मीडिया में भी बहुत
सक्रियता देखी गई। लोगों के सख्त तेवरों ने सरकार और संबंधित विभागों को कार्रवाई
करने पर मजबूर किया। इससे भी बढ़कर पीड़ितों को निशाना बनाने की कोशिश करने वालों
की भी खूब लानत-मलानत हुई। यौन उत्पीड़न एवं दुष्कर्म के आरोपों में कई
नामी-गिरामी लोग भी कानूनी शिकंजे में आए। इससे महिलाओं में उन अपराधों को दर्ज
कराने का हौसला बढ़ा जो आमतौर पर पहले दर्ज ही नहीं होते थे।
इस पर दो राय हो सकती है कि दुष्कर्म रोकने के लिए किए गए उपाय
कितने प्रभावी साबित हुए, लेकिन इस पर सभी सहमत होंगे कि इस अपराध को लेकर जागरूकता जरूर बढ़ी है।
ऐसे में किसी धारणागत रिपोर्ट में उसका जाहिर होना स्वाभाविक है। यह भी कहा जा रहा
है कि यह सर्वे उस दौरान हुआ जब देश में कठुआ और कन्नौज दुष्कर्म मामलों को लेकर
जबरदस्त आक्रोश व्याप्त था। इसका मतलब है कि यह सर्वे न केवल धारणा, बल्कि समय आधारित भी है। इसके निष्कर्षो को खारिज करने के लिए तमाम दलीलें
दी जा सकती हैं, लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि आखिर महिला
सुरक्षा के मामले में किसी अविश्वसनीय सर्वे के आधार पर हमारे नेता सियासी हमला
करने में आगे क्यों रहते हैं, भले ही इससे देश को शर्मसार
होना पड़े?