Sunday, July 1, 2018

सबको आईना दिखाने वाले कबीर


संत कबीर समान रूप से किसी भी संप्रदाय की आलोचना करते थे, जो शायद आज असंभव है
संत कबीर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का एक-एक पक्ष आज भी सांस्कृतिक, सामाजिक एवं राजनीतिक स्तर पर हम सबकी आंखें खोलने के लिए बहुत ही युगानुकूल एवं प्रासंगिक है। इसी कारण उनकी पुण्यतिथि की पंचशती पर देश में अनेक कार्यक्रम हो रहे हैं। प्रधानमंत्री ने भी मगहर जाकर कबीर को याद किया और इस अवसर पर कई परियोजनाओं की शुरुआत की। कबीर एक युगद्रष्टा, तत्ववेत्ता, समाज सुधारक और मानवीय मूल्यों के अप्रतिम प्रतीक हैं। उनका जीवन यह रेखांकित करता है कि मूल्यों को स्थापित करने के लिए शिक्षा से अधिक संस्कार की आवश्यकता है।
कबीर अशिक्षित होते हुए भी अपने ज्ञान से मानवीय मूल्यों के प्रेरणास्रोत बने। जुलाहा परिवार में पैदा कबीर आज से करीब पांच सौ साल पहले पूज्य संत बने। उनके गुरु थे काशी के रामानंद। संत रैदास भी आज की परिभाषा के अनुसार दलित जाति में पैदा होकर पूज्य संत बने। कबीर ने ही यह लिखा, ‘जात न पूछो साधु की।कबीर का जीवन उन लोगों के लिए एक आईना है जो यह कहते हैं कि कथित निचली जाति के लोगों को भारतीय समाज में स्थान और सम्मान नहीं मिलता था अथवा कोई गुरु उन्हें अपना शिष्य नहीं बनाता था। संत कबीर और संत रैदास का जीवन इस विचार को प्रमाणित करता है कि गुलामी काल में जब शिक्षा एवं समृद्धि लगभग समाप्त हो गई थी तब भी भारत में जात-पांत से परे हटकर हर वर्ग को ज्ञान के आधार पर सम्मान मिलता था। महर्षि वाल्मीकि और वेदव्यास से लेकर रैदास और कबीर तक तथाकथित निचली जातियों में पैदा ऋषियों और संतों की एक समृद्ध परंपरा है।
मैकाले और मार्क्‍स से लेकर कैम्ब्रिज एनालिटिका जैसी कंपनियों के प्रभाव से पोषित विचारों से भारतीय संस्कृति को निकृष्ट बताकर समाज में वैमनस्य उत्पन्न करने में लगे हुए आज की दलित राजनीति के स्वयंभू मसीहाओं के लिए कबीर का उदाहरण एक चुनौती के साथ आईना भी है। कबीर प्राचीन भारतीय ज्ञान के अच्छे ज्ञाता थे। वह तंत्र के रहस्यों से लेकर वैदिक दर्शन तक, हर चीज को सहज रूप में बता देते थे। उनकी प्रसिद्ध साखी ये रामनाम रस बिनी चदरिया झीनी रे झीनीकी एक पंक्ति है, ‘‘अष्ट कमल दल चरखा सोहे, पंच तत्व गुन तीनी चदरिया झीनी रे झीनी।इसमें कुंडलिनी जागरण के आठ चक्र, पांच तत्व और त्रिगुणात्मक प्रकृति, तीनों की झलक है। इसी के साथ वह यह कहकर मूर्ति पूजा की प्रखर आलोचना करते हुए उसका उपहास उड़ाते हुए भी नजर आते हैं- ‘‘पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार। ताते ये चक्की भली, पीस खाये संसार’’
यह भारतीय संस्कृति में आलोचना के स्वागत और सहिष्णुता का एक उदाहरण है। वह समान रूप से किसी भी संप्रदाय की आलोचना करते थे, जो शायद आज असंभव है। ‘‘कांकर पाथर जोर के, मसजिद दई बनाये। ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, का बहरा भयो खुदाये।।’’यदि कबीर ने ऐसा कुछ आज बोल दिया होता तो वह सेक्युलरिज्म के दुश्मन ही नहीं कहलाते, कट्टरवादी शायद उनके खिलाफ फतवा भी जारी कर देते। कबीर की ईमानदार और निरपेक्ष आलोचना उनके लिए भी एक आईना है जो असहिष्णुताको मुद्दा बनाते हैं। कबीर ने सांप्रदायिक समन्वय का उदाहरण देते हुए कहा है, ‘‘हिंदू मुए राम कहि, मुसलमान खुदाय। कहै कबीर एक जीवता, दुई में कदए न जाये’’
मूलत: ईश्वर एक है का संदेश देने वाले इस दोहे से आज के एक राजनीतिक प्रश्न का उत्तर भी निकलता है। कबीर के ये विचार दिग्विजय सिंह सरीखे नेताओं के लिए एक आईना हैं जो कहते हैं, ‘हिंदू होता क्या है? यह शब्द तो संघ की ईजाद है।ऐसे लोग जो अपनी सुविधा के अनुसार अपनी विचारधारा को कभी एक पक्ष में तो कभी दूसरे पक्ष में रखते जाते हैं और यह सोचते हैं कि दोनों के बीच रहकर वे जनता को भरमाते हुए अपना उल्लू सीधा कर ले जाएंगे उनकी भी कबीर खबर लेते हैं। जो कभी सड़क पर गोमांस की दावत करने वाले बन जाएं तो कभी जनेऊधारी, ऐसे दोहरेपन के परिणाम से भी कबीर अपने इस दोहे से अवगत कराते हैं- ‘‘चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोए। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए’’
कबीर के पदों में गहन ज्ञान और दर्शन के तत्व भी बड़ी कुशलता से पिरोए हुए हैं, जिन्हें आज भी कथित बुद्धिवादी समझ नहीं पाते। क्वांटम फिजिक्स के प्रख्यात हाईजनबर्ग के अनिश्चितता के सिद्धांत के अनुसार सूक्ष्म कणों से लेकर अखिल ब्रह्मांड तक किसी भी कण की स्थिति और गति का एक साथ निर्धारण असंभव है। यदि स्थिति सही होगी तो गति में त्रुटि होगी और यदि गति सही होगी तो स्थिति में त्रुटि होगी। इस वैज्ञानिक सिद्धांत की कसौटी पर कसें तो जो यह कहते हैं कि मैं ईश्वर को देखूं तभी विश्वास करूंगा वे अवैज्ञानिक बात कहते हैं, क्योंकि ईश्वर और मैं का एक साथ होना असंभव है। कबीर का यह दोहा विज्ञान और अध्यात्म के चरम समन्वय का प्रतीक है। इसका उल्लेख प्रधानमंत्री ने भी किया - ‘‘जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है, मैं नाहिं। सब अंधियारा मिट गया, जब दीपक देखा माहिं’’

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