अरविंद केजरीवाल सरकार और उपराज्यपाल के बीच अधिकारों की लड़ाई
पर आए सर्वोच्च अदालत के फैसले की उसमें व्यक्त भावनाओं के आलोक में व्याख्या होनी
चाहिए। तकनीकी पहलू अपनी जगह हैं और न्यायालय ने कुछ मत उस संदर्भ में व्यक्त किए
हैं। किंतु पूरे फैसले का मूल स्वर है कि सभी पक्ष लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्यान
में रखते हुए एक दूसरे के साथ समन्वय बनाकर काम करें। वास्तव में संसदीय
लोकतांत्रिक व्यवस्था तभी सफलतापूर्वक काम कर सकती है जब सभी पक्ष यह समझें कि वे
सब जनता के सेवक के रूप में हैं। यह भाव पैदा हो जाए तो टकराव की नौबत ही नहीं आएगी।
सर्वोच्च अदालत ने केजरीवाल सरकार, उप राज्यपाल एवं केंद्र सरकार से यही अपेक्षा
की है। वस्तुत: दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है और चूंकि यहां जनता द्वारा
निर्वाचित विधानसभा है, इसलिए उसकी स्थिति अन्य केंद्रशासित
प्रदेशों एवं सामान्य राज्यों से थोड़ी भिन्न है। किंतु इसे एक पूर्ण राज्य मान
लेना, यह सोच लेना कि यहां उप राज्यपाल की भूमिका अन्य
सामान्य राज्यों के राज्यपाल की तरह है सही नहीं है। दुर्भाग्य से केजरीवाल और
उनके साथी सब कुछ जानते हुए इसी सोच का शिकार रहे हैं। सबके अधिकार, दायित्व और सीमाएं संविधान और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र अधिनियम में
अंकित है। हां, वो सब इतना साफ नहीं है कि हर मामले की सीमा
रेखा दिखाई दे। ऐसी स्थिति में विवेक और आचरण प्रमुख हो जाता है। सर्वोच्च अदालत
ने यह कहा है कि निर्वाचित होने के कारण सरकार का दायित्व जनता के प्रति है और उसका
सम्मान होना चाहिए। इसके साथ उसने उप राज्यपाल से कहा है कि वो सरकार को उसकी
वैधानिक सीमा के तहत फैसला करने दें। किंतु इसके साथ यह भी कह दिया है कि यदि किसी
फैसले से वे सहमत नहीं हैं और इसके वैध कारण हैं तो उसे राष्ट्रपति के पास भेज
दें। इससे कोई असहमत नहीं हो सकता। जो विषय दिल्ली सरकार के दायरे में हैं उस पर
उसे काम करने की स्वतंत्रता होनी ही चाहिए। समस्या इसकी व्याख्या में है कि
केजरीवाल सरकार किन विषयों को अपने दायरे में मानती है। फैसला आते ही उसने
अधिकारियों के पदस्थापन एवं स्थानांतरण की दिशा में कदम उठाने की कोशिश की जिसका
विरोध हो गया। यह न फैसले की सही व्याख्या है, न लोकतांत्रिक
आचरण ही। सर्वोच्च अदालत ने सेवा के बारे में कोई फैसला नहीं दिया है। यह दूसरी
पीठ के पास लंबित है।