पांच सदस्यीय संविधान पीठ का 535 पृष्ठीय सर्वसम्मत फैसला स्पष्टतया मोदी
सरकार के खिलाफ है, जो दिल्ली के उपराज्यपाल के तमाम फैसलों
को तार्किक ठहराती रही है। यह केजरीवाल की आप सरकार की जीत है। दिल्ली के
मुख्यमंत्री अब स्वयं को पीड़ित नहीं बता पाएंगे और न ही अपनी सरकार के प्रदर्शन
के लिए उपराज्यपाल पर आरोप नहीं लगा सकेंगे। इस फैसले के आधिकारिक निष्कर्ष यह है
कि उपराज्यपाल केवल ‘‘प्रशासक’हैं,
और सीमित अर्थो में प्रशासनिक मुखिया हैं। मुख्यमंत्री के नेतृत्व
वाले दिल्ली के मंत्रिमंडल की सलाह को मानने को बाध्य हैं। उन्हें अपने तई कोई
स्वतंत्र अधिकार नहीं है। उन्हें मंत्रियों की सलाह या राष्ट्रपति को प्रेषित
मामलों पर आए आदेशों के अनुसार चलना है। वह प्रत्येक मामले में हस्तक्षेप नहीं कर
सकते। हर मामले में उनकी सहमति की जरूरत नहीं है। वह अपवादस्वरूप स्थितियों में ही
मामलों को राष्ट्रपति के पास प्रेषित कर सकते हैं, न कि ‘‘हर दिन’ या ‘‘मशीनी अंदाज’
में। इसका अर्थ हुआ कि सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले से दिल्ली उच्च
न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया है, जिसमें कहा गया था कि
उपराज्यपाल अपने तई स्वतंत्र हैं, और मंत्रियों की सलाह को
मानने को बाध्य नहीं हैं। सच तो यह है कि कोईराज्यपाल/उपराज्यपाल अपने तई कार्य
करने को स्वतंत्र नहीं होता। अपने वरिष्ठों के प्रति निष्ठा के मामले में भारतीय
राज्यपाल अपने ब्रिटिश पूर्ववर्तियों का अनुसरण करते हैं। इस फैसले के आलोक में
बेहतर तो यह हो कि दिल्ली के उपराज्यपाल बोरिया-बिस्तर समेट कर अपना इस्तीफा सौंप
दें। लेकिन यह भी है कि भाजपा के राज्यपालों का रवैया भी कांग्रेस के राज्यपालों
जैसा ही है। न तो उन्होंने अपने स्तर पर स्वतंत्रता दिखाई है, और न ही आत्मसम्मान। कुछ तो ऐसे हैं जो पार्टी कार्यकर्ताओं की भांति
कार्य करते हैं, और उनके बयान और ट्वीट्स को देखें तो उनमें
बेहद पक्षपात और ध्रुवीकरण करने की नीयत दिखाई पड़ती है। जस्टिस दीपक मिश्र ने इस
मामले में संवैधानिक विमर्श को ऊंचे पायदान पर पहुंचा दिया है। एक सौ 20 पृष्ठों में संविधानवाद समेत हमारे उदार संवैधानिक लोकतंत्र के बारह
बुनियादी सिद्धांतों या संविधान के केंद्रीय विचार के रूप में सीमित अधिकारों की
अवधारणा पर रोशनी डाली। भारत के प्रधान न्यायाधीश को साधुवाद देना होगा कि
उन्होंने जस्टिस एके सीकरी और जस्टिस एएम खानविलकर के साथ मिलकर 237 पृष्ठों में जोरदार ढंग से अपना मत रखते हुए बहुमत का फैसला दिया। जस्टिस
डीवाई चंद्रचूड़ ने प्रधान न्यायाधीश से सहमति जताते हुए कहा कि अनेक देशों में
निरंकुशता के चलते लोकतंत्र को खतरा पैदा हो गया है। ‘‘संवैधानिक
नैतिकता’ बनाए रखना जरूरी है। उन्होंने चार बुनियादी
सिद्धांतों का उल्लेखकिया जिनमें उन्होंने धर्मनिरपेक्ष विचार को भी शामिल किया।
जस्टिस अशोक भूषण ने 123 पृष्ठीय मत में फैसले से सहमति
जताते हुए प्रतिनिधि सरकार तथा संविधान की सोद्दश्य विवेचना पर बल दिया। उन्होंने
कहा कि अदालतों को प्रतिनिधि लोकतंत्र, कानून के शासन तथा
संविधान की भावना को पुष्ट करने के लिए तयात्मक व्याख्या करनी चाहिए। उन्होंने
उचित ही कहा कि संविधान के मूल को ‘‘संविधान की भावना’
तथा अंगीकृत उद्देश्य के आलोक में समझा जाना चाहिए। थॉमस जेफरसन का
हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि सरकार को शासितों की सहमति से शक्ति मिलनी चाहिए।
अपने फैसले के अंत में इन आदशरे का जिक्र करते हुए उन्होंने दिल्ली के उपराज्यपाल
की शक्तियों पर कानून की तरजीह होने की बात कही। किसी संवैधानिक प्राधिकार की
निरंकुशता पर तल्ख टिप्पणी की। सच तो यह है कि संवैधानिक पद पर आरूढ़ किसी को भी
नहीं बख्शा। पीठों के गठन तथा न्यायाधीशों के चयन में संविधान के उच्च सिद्धांतों
और तकाजों की बात कही। प्रधान न्यायाधीश ने भी लोकतंत्र पर संभ्रांत वर्ग के
एकाधिकार और सरकार के संभ्रांतीय हो जाने की बात कही। लेकिन हैरतन उन्होंने
बहुमतवादिता की बाबत कुछनहीं कहा जबकि लोकप्रियता के नाम पर ऐसी प्रतिनिधि सरकारें
कई दफा सत्तारूढ़ हो जाती हैं जो अल्पसंख्यकों के खिलाफकार्य करती हैं। इस प्रकार
उस संवैधानिक करार की भावना को ही चोटिल कर डालती हैं, जिसके
आधार पर स्वयं राष्ट्र का निर्माण हुआ है। अलबत्ता, यह जरूर
कहा कि प्रतिनिधि सरकार तक सभी की पहुंच होनी चाहिए और ऐसी सरकार को जैसा कि
उन्होंने कहा ‘‘संविधान के अंतकरण’ की
बलि नहीं चढ़ानी चाहिए। बीआर अंबेडकर की तरह ही जस्टिस मिश्र ने स्वीकार किया कि ‘‘संवैधानिक नैतिकता’ संवैधानिक सिद्धांतों की
अनुपालना में ही निहित है। यह कुदरन नहीं है, बल्कि सतत
प्रयासों से संवैधानिक लोकतंत्र का यह बुनियादी मू्ल्य सहेजा जाता है। इसी प्रकार
उन्होंने ‘‘संवैधानिक वस्तुनिष्ठता’ की
बात कही। कहा कि यह विचार संतुलन बनाए रखने के लिए जरूरी है ताकि विधायिका और
कार्यपालिका अपने नियत दायरे में रह कर कार्य निष्पादन कर सकें। ऐसा इसलिए कि ‘‘विधिक संविधानिक विास’ शक्तियों के वितरण और
पृथकीकरण पर आधारित है। इनमें से किसी के पास एकाधिकार नहीं है। कोई बड़ा या
खुदमुख्तियार नहीं है। उन्होंने कहा कि इस प्रकार अनुच्छेद 239 एए (4) में ‘‘कोईमामला’
का अर्थ ‘‘प्रत्येक मामला’ नहीं होता। इस प्रकार उपराज्यपाल किसी मामले को राष्ट्रपति को प्रेषित
नहीं कर सकते। उन्हें ‘‘संवैधानिक वस्तुनिष्ठता’ का ध्यान रखना होगा। इस अधिकार को दुर्लभतम से दुलर्भ मामलों में ही
इस्तेमाल कर सकते हैं, जिनके पीछे ठोस और वैध कारण होने
चाहिए। उपराज्यपाल मंत्रिमंडल के प्रत्येक फैसले को बदलने का अधिकार नहीं रखते।
भिन्न राय रखनी ही है, इसलिए मंत्रिमंडल के फैसले से भिन्न
रवैया अख्तियार नहीं कर सकते। प्रधान न्यायाधीश ने स्पष्ट कहा है कि उपराज्यपाल की
मंत्रिमंडल से भिन्न राय कभी भी इस अवधारणा पर आधारित नहीं होनी चाहिए कि ‘‘भिन्न राय रखने का उनके पास अधिकार’ है। मत भिन्नता ‘‘संवैधानिक विास’ पर आधारित होनी चाहिए। इसी के साथ
मंत्रियों को भी ध्यान रखना चाहिए कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है, और उपराज्यपाल बराय नाम मुखिया नहीं हैं, बल्कि उनके
पास प्रशासक की शक्तियां हैं। दिल्ली विशेष प्रकार का केंद्र शासित प्रदेश है। न
तो उपराज्यपाल को और न ही मंत्रियों को ऐसा सोचना चाहिए कि वे महत्त्वपूर्ण हो
गएहैं, बल्कि उन्हें संवैधानिक कायदों, मूल्यों और अवधारणों के मुताबिक अपने दायित्व का निवर्हन करना है।