धरोहर
देश के बेशकीमती संसाधनों-जल, जंगल, जमीन के साथ ही शिक्षा, स्वास्य, सेना, रेलवे, एयरलाइंस, संचार आदि सेवाएं तथा अन्य बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रमों को मुनाफाखोर उद्योग घरानों के हवाले करने के बाद अब सरकार देश के लिए ऐतिहासिक महत्त्व की विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को रखरखाव के नाम पर कॉरपोरेट घरानों के हवाले कर रही है। सवाल है कि जो ऐतिहासिक धरोहरें सरकार के लिए सफेद हाथी न होकर दुधारू गाय की तरह आमदनी का जरिया बनी हुई हैं, उन्हें सरकार क्यों निजी हाथों में सौंप कर अपने नाकारा होने का इकबालिया बयान पेश कर रही है?संविधान ने अनुच्छेद 49 में देश के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों के रखरखाव और संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा है। इस नीति निदेशक सिद्धांत का पालन अभी तक सभी सरकारें करती आ रही थीं, लेकिन मौजूदा सरकार ने इसे परे रखते हुए ऐतिहासिक महत्व की लगभग 100 विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को निजी हाथों यानी कारोबारी समूहों को सौंपने का फैसला किया है। ‘‘एडॉप्ट ए हैरिटेज’ योजना के तहत 17वीं सदी में पांचवें मुगल बादशाह शाहजहां के बनाए लाल किले को रखरखाव के नाम पर पांच साल के लिए ‘‘डालमिया भारत समूह’ नामक उद्योग घराने को सौंप दिया है। इसी उद्योग समूह ने आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में स्थित गंडीकोटा किले को भी पांच साल के लिए सरकार से ठेके पर ले लिया है। देश-विदेश के सैलानियों से अच्छी-खासी आमदनी कराने वाले ताजमहल को संयुक्त रूप से जीएमआर समूह तथा आईटीसी समूह के सुपुर्द कर दिया है। सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि वह इन धरोहरों को कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत निजी हाथों में सौंप रही है।पूछा जा सकता है कि कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व सिर्फ इन धरोहरों को लेकर ही क्यों? सरकार कॉरपोरेट घरानों में यह सामाजिक उत्तरदायित्व बोध उन असंख्य सरकारी अस्पतालों और सरकारी शिक्षण संस्थाओं के प्रति क्यों नहीं पैदा करती जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है? क्यों नहीं कोई उद्योग समूह इन अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने को आगे आता? हकीकत तो यह है कि सरकार ने जिन ऐतिहासिक धरोहरों को निजी हाथों में सौंपने की योजना बनाई है, वे लगभग सभी इतनी कमाऊ हैं कि उनकी आमदनी से न सिर्फ उनके रखरखाव का खर्च निकल जाता है, बल्कि सरकारी खजाने में भी खासी आवक होती है। लाल किले से होने वाली आमदनी को ही लें। दो साल पहले तक लाल किले से सरकार को 6.15 करोड रु पये की आमदनी हो रही थी। इसे गोद लेने वाला डालमिया समूह बगैर शुल्क बढ़ाए ही इससे पांच साल में करीब 30.75 करोड़ रुपये अर्जित करेगा और सरकार के साथ हुए करार के मुताबिक उसे पांच साल में इस खर्च करना है महज 25 करोड़ रुपये। जहां तक ताज महल की बात है, शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की यह निशानी तो देश की सर्वाधिक कमाऊ ऐतिहासिक धरोहर है। इससे सरकार को प्रति वर्ष 23 करोड़ रुपये से अधिक की आय होती है। जुलाई, 2016 में संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने लोक सभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2013 से 2016 तक ताज महल से आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को कुल 75 करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी, जबकि इन तीन सालों में इसके रखरखाव पर खर्च हुए थे महज 11 करोड़ रु पये। जाहिर है कि ताजमहल अपने रखरखाव पर खर्च के बावजूद मुनाफे वाली धरोहर है। अभी खुलासा नहीं हुआ है कि गोद लेने वाली कंपनियां इस पर कितना खर्च करेंगी। फिर भी तय है कि इस पर जो खर्च होगा वह होने वाली आमदनी के मुकाबले कम ही होगा। यह भी गोद लेने वाली कंपनियां इनको देखने के लिए आने वाले पर्यटकों से तो शुल्क वसूलेंगी ही, वहां के चप्पे-चप्पे पर अपना विज्ञापन भी करेंगी। अपनी दूसरी व्यावसायिक गतिविधियों के जरिए भी वहां मोटा मुनाफा कमाएंगी। सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर दर्शकों के लिए अभी निर्धारित शुल्क भी बढ़ा देंगी। जाहिर है कि देश की आबादी के एक बड़े तबके के लिए इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का दीदार करना आसान नहीं रह जाएगा। सरकार जिस तरह अपनी अनावश्यक दखलंदाजी और मनमाने फैसलों से देश की संवैधानिक संस्थाओं का मानमर्दन कर रही है, उसी तरह अब वह देश की बहुमूल्य ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व की बहुमूल्य धरोहरों के साथ भी खिलवाड़ कर रही है।
देश के बेशकीमती संसाधनों-जल, जंगल, जमीन के साथ ही शिक्षा, स्वास्य, सेना, रेलवे, एयरलाइंस, संचार आदि सेवाएं तथा अन्य बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रमों को मुनाफाखोर उद्योग घरानों के हवाले करने के बाद अब सरकार देश के लिए ऐतिहासिक महत्त्व की विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को रखरखाव के नाम पर कॉरपोरेट घरानों के हवाले कर रही है। सवाल है कि जो ऐतिहासिक धरोहरें सरकार के लिए सफेद हाथी न होकर दुधारू गाय की तरह आमदनी का जरिया बनी हुई हैं, उन्हें सरकार क्यों निजी हाथों में सौंप कर अपने नाकारा होने का इकबालिया बयान पेश कर रही है?संविधान ने अनुच्छेद 49 में देश के ऐतिहासिक और राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों के रखरखाव और संरक्षण का जिम्मा सरकार को सौंपा है। इस नीति निदेशक सिद्धांत का पालन अभी तक सभी सरकारें करती आ रही थीं, लेकिन मौजूदा सरकार ने इसे परे रखते हुए ऐतिहासिक महत्व की लगभग 100 विश्व प्रसिद्ध धरोहरों को निजी हाथों यानी कारोबारी समूहों को सौंपने का फैसला किया है। ‘‘एडॉप्ट ए हैरिटेज’ योजना के तहत 17वीं सदी में पांचवें मुगल बादशाह शाहजहां के बनाए लाल किले को रखरखाव के नाम पर पांच साल के लिए ‘‘डालमिया भारत समूह’ नामक उद्योग घराने को सौंप दिया है। इसी उद्योग समूह ने आंध्र प्रदेश के कडप्पा जिले में स्थित गंडीकोटा किले को भी पांच साल के लिए सरकार से ठेके पर ले लिया है। देश-विदेश के सैलानियों से अच्छी-खासी आमदनी कराने वाले ताजमहल को संयुक्त रूप से जीएमआर समूह तथा आईटीसी समूह के सुपुर्द कर दिया है। सरकार की ओर से कहा जा रहा है कि वह इन धरोहरों को कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत निजी हाथों में सौंप रही है।पूछा जा सकता है कि कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व सिर्फ इन धरोहरों को लेकर ही क्यों? सरकार कॉरपोरेट घरानों में यह सामाजिक उत्तरदायित्व बोध उन असंख्य सरकारी अस्पतालों और सरकारी शिक्षण संस्थाओं के प्रति क्यों नहीं पैदा करती जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है? क्यों नहीं कोई उद्योग समूह इन अस्पतालों और शिक्षण संस्थानों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने को आगे आता? हकीकत तो यह है कि सरकार ने जिन ऐतिहासिक धरोहरों को निजी हाथों में सौंपने की योजना बनाई है, वे लगभग सभी इतनी कमाऊ हैं कि उनकी आमदनी से न सिर्फ उनके रखरखाव का खर्च निकल जाता है, बल्कि सरकारी खजाने में भी खासी आवक होती है। लाल किले से होने वाली आमदनी को ही लें। दो साल पहले तक लाल किले से सरकार को 6.15 करोड रु पये की आमदनी हो रही थी। इसे गोद लेने वाला डालमिया समूह बगैर शुल्क बढ़ाए ही इससे पांच साल में करीब 30.75 करोड़ रुपये अर्जित करेगा और सरकार के साथ हुए करार के मुताबिक उसे पांच साल में इस खर्च करना है महज 25 करोड़ रुपये। जहां तक ताज महल की बात है, शाहजहां और मुमताज की मोहब्बत की यह निशानी तो देश की सर्वाधिक कमाऊ ऐतिहासिक धरोहर है। इससे सरकार को प्रति वर्ष 23 करोड़ रुपये से अधिक की आय होती है। जुलाई, 2016 में संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने लोक सभा में एक सवाल के जवाब में बताया था कि 2013 से 2016 तक ताज महल से आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया को कुल 75 करोड़ रुपये की आमदनी हुई थी, जबकि इन तीन सालों में इसके रखरखाव पर खर्च हुए थे महज 11 करोड़ रु पये। जाहिर है कि ताजमहल अपने रखरखाव पर खर्च के बावजूद मुनाफे वाली धरोहर है। अभी खुलासा नहीं हुआ है कि गोद लेने वाली कंपनियां इस पर कितना खर्च करेंगी। फिर भी तय है कि इस पर जो खर्च होगा वह होने वाली आमदनी के मुकाबले कम ही होगा। यह भी गोद लेने वाली कंपनियां इनको देखने के लिए आने वाले पर्यटकों से तो शुल्क वसूलेंगी ही, वहां के चप्पे-चप्पे पर अपना विज्ञापन भी करेंगी। अपनी दूसरी व्यावसायिक गतिविधियों के जरिए भी वहां मोटा मुनाफा कमाएंगी। सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर दर्शकों के लिए अभी निर्धारित शुल्क भी बढ़ा देंगी। जाहिर है कि देश की आबादी के एक बड़े तबके के लिए इन ऐतिहासिक और सांस्कृतिक धरोहरों का दीदार करना आसान नहीं रह जाएगा। सरकार जिस तरह अपनी अनावश्यक दखलंदाजी और मनमाने फैसलों से देश की संवैधानिक संस्थाओं का मानमर्दन कर रही है, उसी तरह अब वह देश की बहुमूल्य ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्त्व की बहुमूल्य धरोहरों के साथ भी खिलवाड़ कर रही है।